Tuesday, January 7, 2014

Paduka Pradan Sohala


बहुत दिनों के बाद मेरा इतवार सद्‍गुरु सेवा में व्यतित हुआ। ५ जनवरी २०१४ को अपने श्री हरिगुरुग्राम में सद्‍गुरु श्री अनिरुद्ध बापूजींकी पादुकाओं का वितरण नए उपासना केंद्रो को हुआ। इन नए केंद्रो को अपने संस्था के वेबसाईटस‌ के बारे में जानकारी देने की सेवा मुझे थी। लेकीन उसके बाद मुझे फोटोग्राफी करने का अवसर मिला। शायद यही सेवा मेरे लिए उस दिन उचित थी। क्योंकी कॅमेरा की नजरसे मैंने इस महा उत्सव को इक नयी तरह से अनुभव किया। इन भक्तो के प्यार का सैलाब देखते देखते मैं खुद इसमें कब बेह गयी मुझे पता भी नही चला। महाराष्ट्र के छोटे छोटे गांव से भक्त अपने सद्‍गुरु की पादुकाएं लेने के लिए मुंबई में आए थे। क्या खुशी थी उनकी चेहरे पे! आहा हा! क्या प्यार था उनकी निगाहो में। 

इस कार्यक्रम की शुरुवात ९ बजे बापूजी के चिन्मय पादुकाओ की पूजनसे हुई। सबसे पहिले संघ में ४१ केंद्र के प्रमुख सेवक पूजन को बैठे थे। वे जिस तरह से पादुकाओं का पूजन कर रहे थे; उसे देखते देखते मेरी भी ऑंखो में पानी आ गया। धीरे धीरे जप के साथ पूजक पादुकाओं पे कुमकुम, हल्दी और अबीर अर्पण कर रहे थे। जैसे हर एक के बापू अलग है, वैसेही हर एक केंद्र को दी गई पादुकाए अलग दिख रही है। सांघिक पादुका पूजन की इससे पहले मैंने अनुभूती नही ली थी; लेकीन आज यह सांघिक पूजन देखकर बहुत अच्छा लगा।
पूजन के बाद पूजनीय समिरदादां के हस्ते संत्संग के वातावरण मे पादुकाओंका वितरण किया गया। हर एक ने अपनी तरह से पादुकाओ बडे प्यार से सद‍गुरु नाम के गजरमे सर पे उठा अपने गांव ले निकले। पादुका लेने के लिए बडे बुढे, बच्चे सारे आए थे। 

कितने जन तो ऐसे थे की जिन्होने बापूजी पहले कभी प्रत्यक्ष देखा नही था। लेकीन उनका उत्साह हमसे कई गुना जादा था। 

बारी बारी हर एक जन पादुकाओ को सर पे उठा के नाच रहे थे। यह सारा महोत्सव मैंने मुख्य स्टेजके ऊपरसे देखा। एक क्षण तो मैं स्तब्ध हो गई। एक बाजू गजर चालू था "मन रमले रे" और दुसरी और सारे श्रद्धावान बेहोश होके नाच रहे थे। इस दृश्य का वर्णन करना मेरे बस की बात नही है। मैं तो सिर्फ इस दृश्य का अनुभव ले रही थी। ऐसे लगा की आषाढ-कार्तिकी में होनेवाली पंढरपूर की वारी यहा मार्गशिष मेंही आगयी है। मेरी ऑंखॊसे धाराएं बहने लगी। 

"मुझे लगा के मेरी ऐसी भक्ती कही खो गई है, ऐसा भाव कही खो गया है। मैं भी कभी इन्ही भक्तो की तरह पागल थी। लेकिन आज मुझे क्या हो गया है मुझे समझ नही आ रहा। क्या करे बापू?" ऐसे मेरे मन मे विचार आने लगा। इसलिए मैंने पिछे बापूजी के तस्वीर को देखा और पलक झपकतेही स्टेज के ऊपरसे उतरकर इसी भक्त सागर की एक बुंद बनगई। 

तब तक "आय लव्ह यू माय डॅड" का गजर शुरु हुआ था। हम सब नाचने लगे। तब मैंने देखा के मेरे आजूबाजू मैं सब गांव के लोग थे जिन्हे शायद ही अंग्रेजी का ज्ञान था। शायद नही था। फिर भी वे "आय लव्ह यू माय डॅड" का गजर जोर शोर से कर रहे थे। तब मुझे एक बात समझ आयी "प्यार को कोई भाषा नही होती" और "आय लव्ह यू माय डॅड" हे सिर्फ पाच शब्द नही...ये तो वो मंत्रस्वरुप शब्द हैं जिसके उच्चारण से हम उत्साहित, उल्हासित होते है। 

मैं समिरदादा की बहुत अंबज्ञ हूं के उन्होने मुझे यह कार्यक्रम अनुभव करने का अवसर दिया। जिसके वजहसे मुझे अपने हृदय मैं बापू की पादुकाए प्रस्थापित करने का मार्ग मिला। मैं अंबज्ञ हूं।

- रेश्मा नारखेडे


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